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बचपन को लीलता होमवर्क का बोझ - ललित गर्ग

Updated on Tuesday, June 05, 2018 14:16 PM IST

छुट्टियां यानी बच्चों के मौज-मस्ती और सीखने का मौसम होता है, जो अब स्कूलों से मिलने वाले होमवर्क के बोझ तले मुरझा रहा है। बेहतर व आधुनिक शिक्षा के नाम पर बच्चों पर आवश्यकता से अधिक होकवर्क का बोझ उनके कोमल मन मस्तिष्क के लिए हानिकारक एवं विडम्बनापूर्ण साबित होता जा रहा है। खिलता बचपन होमवर्क के बोझ से परेशान रहने लगा हैं। इसके दबाव से बचपन घुटता जा रहा है। उनका हंसना, खिलखिलाना बंद होने लगा है और वे अवसाद, तनाव एवं कुंठा से ग्रसित होते जा रहे हैं। उनके स्वभाव में परिवर्तन आने लगा है। अब तो इसका दबाव अभिभावकों को भी महसूस होने लगा है और वे शिक्षा व्यवस्था को कोस रहे हैं।


स्कूली बच्चों का होमवर्क आज की पीढ़ी के मां-बाप के लिए एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। हाल में हुए एक अध्ययन से यह साफ हुआ है यह प्रचलन वैसे तो दुनियाभर में है, लेकिन भारत इसमें सबसे आगे है। शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय एक चैरिटेबल संगठन वर्की फाउंडेशन की ओर से जारी एक शोध रिपोर्ट के अनुसार भारत में अभिभावक हर सप्ताह औसतन 12 घंटा बच्चों का होमवर्क कराने में लगाते हैं। दूसरे नंबर पर तुर्की है, जहां यह समय करीब नौ घंटे होता है। चीन में यह समय करीब सात घंटे है तो अमेरिका में करीब छह घंटे। प्रश्न किस देश में कितने समय के होमवर्क का नहीं है, प्रश्न है भारत में बच्चों पर बढ़ते होमवर्क के बोझ का एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आना। बच्चे हमारे जीवन की खुशियों की बगिया है, लेकिन हम उसे उजाड़ रहे हैं। आ1स्कर वाइल्ड ने सही कहा है कि ‘‘मेरे पास बहुत से फूल हैं लेकिन बच्चे सबसे सुंदर फूल हैं।’ होमवर्क के बोझ से हम इन सुन्दर फूलों रूपी बच्चों के जीवन को नरक न बनाये।

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होमवर्क घर-घर की बढ़ी समस्या है, हर अभिभावकों की बच्चों को हिदायतें मिलती है कि पहले होमवर्क करके फिर टीवी देखना। होमवर्क कर लो, फिर खेलने जाना। बच्चों पर इन हिदायतों का इतना घातक असर होता है कि बच्चा कुछ ऐसा कदम उठा लेता है, जिससे सदमा-सा लगे। 10वीं की छात्रा ने मानसिक रूप से परेशान होने पर खुदकुशी कर ली। उसके अभिभावकों का मानना था कि वह पढ़ाई के लिए गंभीर थी और इसका असर उसके दिमाग पर पड़ा। यह इकलौती घटना नहीं है, जिसमें पढ़ाई के दबाव के कारण बच्चों ने खुदकुशी जैसा कदम उठाया। कैलिफोर्निया में शोधकर्ताओं ने 4300 बच्चों में सर्वे किया। सभी बच्चे वहां के टॉप-10 स्कूलों के थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि ज्यादा होमवर्क से बच्चों में तनाव बढ़ रहा है और वे बीमारियों के शिकार हो रहे हंै।
हमारे देश की बात करें तो यह होमवर्क का चलन हाल के वर्षों में बढ़ा है। जैसे-जैसे प्राइवेट स्कूलों का दखल बढ़ा, अभिभावकों में अपने बच्चों का रिजल्ट अच्छे से अच्छा कराने की होड़ बढ़ी और साथ में यह प्रवृत्ति भी मजबूत होती गई। स्कूल चाहते हैं, पैरंट्स को ऐसा लगता रहे कि उनके बच्चों को स्तरीय पढ़ाई मिल रही है। पैरंट्स को यह तभी लगेगा जब वे बच्चों के होमवर्क का दबाव महसूस करेंगे। स्कूलों में होमवर्क की मार से बच्चे बेहाल हैं। शिक्षक कक्षा में पढ़ाने की बजाए बच्चों पर होमवर्क का पुलिंदा लाद रहे हैं। सात घंटे तक स्कूल में पढ़ाई करने वाले बच्चे होमवर्क मिलने से मानसिक तनाव में आ रहे है। इसके चलते बच्चे सिरदर्द, अल्सर पेट की बीमारियों के साथ-साथ कम वजन और नींद की समस्या से ग्रसित हो जाते हैं। सर्वे में शामिल बच्चों ने स्वीकार किया किया कि होमवर्क से उनके जीवन में अत्यधिक दबाव आया था, वे असंतुलित हुए हैं। एनसीएफ एक्ट 2005 लागू है, जिसमें प्राइमरी से लेकर सीनियर कक्षाओं के बच्चों को कितना होमवर्क दिया जाना चाहिए यह मानक तय है लेकिन स्कूलों में इन मानकों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। कक्षा दो तक एनसीएफ एक्ट 2005 के तहत होमवर्क फ्री रखा गया है, इन बच्चों को खेल खेल में पढ़ाना चाहिए लेकिन छोटे बच्चों को भी कापियों में इतना होमवर्क मिलता है कि घर पर उनकी माताएं पूरा करतीं हैं।


केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने हाल ही में स्कूलों को परामर्श जारी करते हुए बच्चों पर बस्ते के बोझ को कम करने के साथ उन पर होमवर्क के भार को कम करने का सुझाव दिया गया था। लेकिन इस तरह के परामर्श का स्कूलों पर कोई असर नहीं हो रहा है। बच्चों को न केवल होमवर्क बल्कि ऐसे-ऐसे प्रॉजेक्ट दिए जाते हैं जो उनकी उम्र के लिहाज से अत्यधिक कठिन होते हैं, हास्यास्पद होते हैं। नतीजतन आज के मॉडर्न और हाई-फाई स्कूलों के आसपास ‘होमवर्क बिजनस’ फलने-फूलने लगा है। मोटी रकम लेकर इन बच्चों के होमवर्क को पूरा करने की जिम्मेदारी इस तरह नया पनप रहा व्यवसाय उठा रहा है। कुछ ही दिन पहले एक रिपोर्ट आई थी कि ब्रिटेन के एक स्कूल के छात्र को बेहद अजीबोगरीब होमवर्क दिया गया। शेक्सपियर के दुखांत नाटक ‘मैकबेथ’ पर एक माॅडयूल के तहत 60 से अधिक स्टूडेंट से होमवर्क के रूप में सुसाइड नोट लिखने को कहा गया। इससे अभिभावकों में भड़के रोष के बाद स्कूल को माफी मांगनी पड़ी। बच्चों को मिलने वाली अजीबोगरीब होमवर्क की श्रंृखला में छठी कक्षा में पढ़नेवाली एक छात्रा से गणित के फार्मूला का शब्दकोष बनाने को कहा गया है तो दसवीं की छात्रा को 20 पेज की साइंस मैगजीन डिजाइन करने को दिया गया। आठवीं कक्षा की एक छात्रा को थर्माकोल का एफिल टाॅवर बनाने को कहा गया। चैथी कक्षा की एक बच्ची को घड़ी का वर्किंग मॉडल बनाकर लाने को कहा गया जबकि तीसरी कक्षा के एक बच्चे को एमएस वर्ड पर स्वच्छ भारत अभियान का प्रारूप बनाकर लाने को कहा गया।

स्कूलों की ओर से बच्चों को इस तरह के प्रोजेक्ट्स से जहां अभिभावकों पर आर्थिक बोझ़ बढ़ता है, वहीं इसका छात्रों को कोई फायदा नहीं होता। शिक्षाविद् के. श्रीनिवास का कहना है कि प्रोजेक्ट्स देने का मतलब होता है कि छात्रों को विभिन्न विषयों को लेकर ज्ञान और समझ बढ़े लेकिन जिस तरह के प्रोजेक्ट्स दिए जाते हैं, उससे बच्चों को कोई फायदा नहीं होता। अभिभावकों का कहना कि आम दिनों में भी जब बच्चे जब स्कूल से घर पहुंचते हैं तो दिन भर भारी भरकम बस्ते को उठाकर थकान से बेहाल होते हैं। इसके बावजूद स्कूल में उन्हें काफी होमवर्क दिया होता है जिसे करवाना भी आसान नहीं होता है। ऐसे में शारीरिक एवं मानसिक परेशानी से जूझ रहे बच्चों का विकास कैसे हो पाएगा? यह एक ऐसा सवाल है जो हमारी शिक्षाप्रणाली पर अभिशाप की तरह टंका है। स्कूलंे बच्चों के नैसर्गिक विकास के केंद्र के रूप में विकसित नहीं हो पा रहे हैं। बच्चों में रचनात्मकता के विकास की बजाए कृत्रिमता थोपी जा रही है। इस प्रवृति में बदलाव लाना सबसे जरूरी है। पिछले कई वर्षों में मई-जून की छुट्टियां बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए भयावह एवं खैफनाक अनुभव बनता जा रहा है। इसे रचनात्मक बनाने की जरूरत है। आज जरूरत इस बात की भी है कि हम अपनी बच्चों के रूप में पनपती आकांक्षाओं के उगते पौधों को उतना ही पानी दें जितना विकास के लिये हवा और धूप जरूरी है। - (ललित गर्ग)

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