Electromagnetic Radiation (इलेक्ट्रो मैगनेटिक रेडिएशन) सभी इलेक्ट्रोनिक उपकरणों द्वारा उत्पन्न होता है, ठीक उसी तरह जियोपैथिक रेडिएशन पृत्वी के चुंबकीय क्षेत्र मैगनेटिक ग्रीड लाइन, भूमिगत दरारों और सतह के नीचे पानी की धाराओ से उत्पन्न होने वाली तरंगे हैं. इनका निरंतर संपर्क मनुष्यों, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के लिए अत्यंत हानिकारक होता है. जियोपैथिक स्ट्रेस के नकारात्मक प्रभाव हम पर किस हद तक असर करते हैं, यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता पर निर्भर करता है लेकिन वैज्ञानिक शोध बताता है कि इस क्षेत्र में निरंतर रहना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.
जियोपैथिक स्ट्रेस, जियो + स्ट्रेस शब्द के योग से बना है, जियो अर्थात पृथ्वी और पैथिक अर्थात पीङा या बीमारी, इस तरह जियोपैथिक स्ट्रेस का शाब्दिक अर्थ हुआ पृथ्वी से होने वाली बीमारी. भूमिगत जल स्त्रोत जहरीले रेडिएशन का उत्सर्जन करते हैं, उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम की ओर गतिशील रहती है, यह पूर्णतः एक जाल की भांति होता है, जो इलेक्ट्रो मैगनेटिक लाइंस ऑफ फोरसेस की भांति क्रिया शील रहता है, ऐसी तरंग रेखाएं आपस में एक दूसरे से 5 से 18 मीटर की दूरी पर चलायमान होती हैं. अगर कोई भी जैव विविध इन तरंगों के बीच ज्यादा समय व्यतीत करता है तो उसके मन और शरीर का समन्वय बिगङ जाता है, उसमें ऱोग प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास होने लगता है और निश्चित रूप में वह घातक बीमारियों का शिकार बन जाता है.
जियोपैथिक रेडिएशन कारखानों की मशीनों के लिए भी नुकसानदेह है, इसके दुष्प्रभाव में मशीनों के पुर्जों की आंतरिक कंपन प्रभावित होती है जिस कारण वे ठीक से काम नहीं कर पाती हैं. जियोपैथिक रेडिएशन के प्रभाव क्षेत्र में रखी गई मशीनों में खराबी और मम्मत की लागत तुलनात्मक रूप से अधिक पाई जाती है. पुणे विश्वविद्यालय के दो शोधार्थियों को मुंम्बई-पुणे हाईवे पर ऐसे दो स्थान मिले हैं जहां 60 प्रतिशत अधिक दुर्घटनाएं होती थीं, अचंभित करने वाला विषय यह था कि वहां न तो सङक खराब था न हीं कोई खतरनाक मोङ था. व्यापक निरीक्षण के बाद यह बात सामने आई कि दोनों स्थान जियोपैथिक स्ट्रेस के क्षेत्र थे. कई आधुनिक उपकरणों से तथा कम्पूटरी कृत अध्ययन से यह बात साफ हुई कि ऐसे क्षेत्रों से गुजरते समय चालकों के शरीर में उत्पन्न तरंगों की तीव्रता, हृदय गति, ब्लडप्रेशर और उनकी दिमागी प्रतिक्रिया असंतुलित हो जाती है.
उस समय अगर गाङी की गति 60 किलोमाटर प्रति घंटे की है तो शरीर में विद्युतीय आवेशित कणों का स्तर तरंगो के प्रभाव में दो गुणी बढ जाती है. गाङी की गति 80 किलोमीटर प्रति घंटे पर शरीर का तापमान जियोपैथिक स्ट्रेस के कारण तीन गुणी वृद्धि तक मापी गई है, जिससे दिमागी प्रतिक्रिया का समय बढ जाता है, जो हमारी निर्णय शक्ति को प्रभावित करता है और दुर्घटना का कारण बन जाता है. पुराने जमाने की भव्य इमारतों -भवनों को बनाते समय इस बात का ध्यान रक्खा जाता था कि रात में सोने और दिन में काम करने की जगह जियोपैथिक स्ट्रेस से ग्रसित नहीं हो. प्राचीन काल में घर बनाने से पूर्व जमीन पर गाय या भेङ, बकरियां चरने के लिए छोङ दिया जाता था. जिन जगहों पर जानवर चरते और बैठते थे, उन्हें शुभ मानकर घर बनाने के लिए उपर्युक्त माना जाता था, पक्षी और कुछ जानवर इस प्राकृतिक रेडिएशन और जियो सिस्मिक प्रभाव के प्रति संवेदनशील पाए गए हैं तभी तो किसी प्राकृतिक आपदा -भूकंप, सुनामी, आंधी-तूफान के समय में सतर्क पाए गए हैं और वैज्ञानिक उन्हें संवेदक के रुप में भी प्रयोग करते हैं.
भारत के अलावा जर्मनी और फ्रांस में 1940 से लेकर 1985 तक इस विषय पर काफी अनुसंधान कार्य हुआ है. जर्मनी के वैज्ञानिक डाक्टर हर्टजमैन ने कैंसर से पीङित 500 मरीजों के रहने, सोने, खाने और काम करने की जगहों का 5 वर्षों तक निरीक्षण-परीक्षण किया, उन जगहों पर जियोपैथिक स्ट्रेस का प्रभाव था. जियोपैथिक स्ट्रेस मनुष्य के उपर मीठा जहर के रूप में सक्रिय रहता है. बाद के सालों में आर्किटेक्ट और ऊंची इमारत बनाने वाले बिल्डरों को इसकी महत्ता समझ मे आई . समस्या यह है कि जमीन अब बहुत महंगी हो गई है और इसका एक इंच भी बर्बाद नहीं किया जा सकता. भू-माफियाओं को डर था कि ऐसे जमीन के खरीददार कम हो जाएंगे, बाजार के दबाव में भू-माफियाओं ने काम करना शुरू कर दिया और जियोपैथिक स्ट्रेस पर चर्चा बंद कर दी गई. कई सालों के बाद इस पर अब घोर चर्चा शुरू हो गई है और विज्ञान जगत इस पर अब संज्ञान लेने लग पङा है. विगत 15 वर्षों में जियोपैथिक रेडिएशन और साइनर्जी एन्वायरोनिक्स पर देश में गहन शोध कार्य हुआ है और इस समस्या का निराकरण भी अवश्य मिलेगा.
1. एक दिन शिकायत तुम्हें वक्त और जमाने से नहीं खुद से होगी कि----
जिंदगी सामने थी और तुम दुनियां में उलझे रहे और अब तो बहुत देर हो चुकी....
2. समय अच्छा हो तो आपकी गलतियां भी मजाक लगती है,और—
समय बुरा तो आपका मजाक भी बङी गलती कहलाती है......
इसलिए अभिव्यक्ति के अभिवादन में सदैव सतर्क रहें,जब भी कुछ कहें.
आपका सही तर्क भी अपने लोगों से संपर्क तोङ सकता है और कुतर्क बन सकता है.
-डा. बासुदेव प्रसाद, 870,सेक्टर-16,पंचकूला 134113,हरियाणा
(लेख में विचार लेखक के हैं पोर्टल इसको सत्यापित नहीं करता है)