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बड़े पर्दे पर लौट रही है शाह बानो केस की कहानी

Updated on Thursday, April 24, 2025 11:17 AM IST

 
मुंबई (अनिल बेदाग) : यूनिफॉर्म सिविल कोड। वक्फ बोर्ड। तीन तलाक। शाह बानो। ये सिर्फ सुर्खियाँ नहीं हैं — ये उन गूंजों की याद दिलाते हैं जो भारत के सबसे तीखे न्यायिक मुकदमों में से एक से निकलीं। एक ऐसा मामला जिसने जनमत को बांट दिया, देश की धर्मनिरपेक्षता की कसौटी ली, और बराबरी बनाम पहचान की बहस को नई चिंगारी दी, एक बहस जो आज भी जारी है।
 
और अब, 40 साल बाद, ये कहानी लौट रही है इस बार, बड़े पर्दे पर। खबरों के मुताबिक, शाह बानो केस और इसी जैसे अन्य मामलों से प्रेरित एक दमदार फीचर फिल्म पर काम चल रहा है, जिसका निर्देशन सुपर्ण वर्मा कर रहे हैं। यामी गौतम और इमरान हाशमी इस फिल्म के मुख्य कलाकार हैं, और सूत्रों के अनुसार फिल्म की शूटिंग हाल ही में लखनऊ में पूरी हुई है। यह फिल्म यामी की "आर्टिकल 370" के बाद अगली बड़ी सिनेमाई रिलीज़ मानी जा रही है, जो उन कानूनी लड़ाइयों की इंसानी कीमत को सामने लाएगी जो राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन जाती हैं।
 

 
 
1978 में, 62 वर्षीय शाह बानो-पांच बच्चों की माँ — ने अपने वकील पति मोहम्मद अहमद खान द्वारा तीन तलाक दिए जाने के बाद, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत सुप्रीम कोर्ट में गुज़ारा भत्ते की याचिका दायर की। उनके पति ने मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला देकर तीन महीने के बाद किसी भी तरह का गुज़ारा भत्ता देने से इनकार कर दिया।
 
सात साल लंबी कानूनी लड़ाई के बाद, 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा कि धारा 125 सभी नागरिकों पर लागू होती है, और तलाकशुदा महिलाओं को, चाहे वे किसी भी धर्म की हों, गुज़ारा भत्ता पाने का अधिकार है — यह फैसला लैंगिक न्याय और संवैधानिक समानता की दिशा में एक मील का पत्थर था।
 
लेकिन इस फैसले के बाद कट्टरपंथी समूहों की तीखी प्रतिक्रिया हुई, और राजीव गांधी सरकार ने 1986 में मुस्लिम महिला (विवाह विच्छेद पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पास किया, जिसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को काफी हद तक निष्प्रभावी कर दिया। इस प्रकरण ने वोट बैंक की राजनीति, समान नागरिक संहिता और धर्मनिरपेक्षता पर फिर से बहस को जन्म दिया। बहस जो आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह जैसे नेता आज भी शाह बानो मामले को यूनिफॉर्म सिविल कोड और कानूनी सुधारों की बहस का निर्णायक मोड़ मानते हैं।
 
कभी शाह बानो की आवाज सुप्रीम कोर्ट की दीवारों में गूंजी थी। आज चार दशक बाद, वो आवाज़ लौट रही है और भी बुलंद, और भी साहसी इस बार सिनेमा के माध्यम से।
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